जन्म: 26 जनवरी, 1915, मणिपुर
मृत्यु: 17 फ़रवरी, 1993
कार्य क्षेत्र: स्वाधीनता सेनानी
रानी गाइदिनल्यू एक प्रसिद्ध भारतीय महिला क्रांतिकारी थीं। उन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान नागालैण्ड में अंग्रेजी हुकुमत के विरुद्ध अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम दिया। इस वीरांगना को आजादी की लड़ाई में तमाम वीरतापूर्ण कार्य करने के लिए नागालैण्ड की रानी लक्ष्मीबाई भी कहा जाता है। मात्र 13 साल की उम्र में वे अपने चचेरे भाई जादोनाग के हेराका आन्दोलन में शामिल हो गयीं। प्रारंभ में इस आन्दोलन का स्वरुप धार्मिक था पर धीरे-धीरे इसने राजनैतिक रूप धारण कर लिया जब आन्दोलनकारियों ने मणिपुर और नागा क्षेत्रों से अंग्रेजों को खदेड़ना शुरू किया। हेराका पंथ में रानी गाइदिनल्यू को चेराचमदिनल्यू देवी का अवतार माना जाने लगा। अंग्रेजों ने रानी गाइदिनल्यू को उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए गिरफ़्तार कर लिया। उस समय उनकी उम्र मात्र 16 साल थी। सन 1937 में पंडित जवाहरलाल नेहरू उनसे शिल्लोंग जेल में मिले और उनकी रिहाई के प्रयास किए पर अंग्रेज़ों ने उनको रिहा नहीं किया। भारत की आजादी के बाद सन 1947 में उनकी रिहाई हुई। आजादी के बाद उन्होंने अपने लोगों के विकास के लिए कार्य किया।
वे नागाओं के पैतृक धार्मिक परंपरा में विश्वास रखती थीं इसलिए उन्होंने नागाओं द्वारा ईसाई धर्म अपनाने का घोर विरोध किया। भारत सरकार ने उन्हें स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा दिया और पद्म भूषण से सम्मानित किया।
प्रारंभिक जीवन
रानी गाइदिनल्यू का जन्म 26 जनवरी 1915 को मणिपुर के तमेंगलोंग जिले के तौसेम उप-खंड के नुन्ग्काओ (लोंग्काओ) नामक गाँव में हुआ था। अपने माता-पिता की आठ संतानों में वे पांचवे नंबर की थीं। उनके परिवार का सम्बन्ध गाँव के शाषक वर्ग से था। आस-पास कोई स्कूल न होने के कारण उनकी औपचारिक शिक्षा नहीं हो पायी।
जादोनाग की अनुयायी
मात्र 13 साल की उम्र में वे अपने चचेरे भाई जादोनाग के हेराका आन्दोलन में शामिल हो गयी थीं। जादोनांग एक प्रसिद्द स्थानिय नेता बनकर उभरा था। उसके आन्दोलन का लक्ष्य था प्राचीन नागा धार्मिक मान्यताओं की बहाली और पुनर्जीवन। धीरे-धीरे यह आन्दोलन ब्रिटिश विरोधी हो गया और ब्रिटिश राज की नागा क्षेत्रों से समाप्ति भी इस आन्दोलन का लक्ष्य बन गया। धीरे-धीरे कई कबीलों के लोग इस आन्दोलन में शामिल हो गए और इसने ग़दर का स्वरुप धारण कर लिया।
जादोनाग के विचारधारा और सिद्धान्तों से प्रभावित होकर रानी गाइदिनल्यू उसकी सेना में शामिल हो गयी और मात्र 3 साल में ब्रिटिश सरकार के विरोध में लड़ने वाली एक छापामार दल की नेता बन गयीं।
सन 1931 में जब अंग्रेजों ने जादोनाग को गिरफ्तार कर फांसी पर चढ़ा दिया तब रानी गाइदिनल्यू उसकी आध्यात्मिक और राजनीतिक उत्तराधिकारी बनी।
उन्होंने अपने समर्थकों को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ खुलकर विद्रोह करने के लिया कहा। उन्होंने अपने लोगों को कर नहीं चुकाने के लिए भी प्रोत्साहित किया। कुछ स्थानीय नागा लोगों ने खुलकर उनके कार्यों के लिए चंदा दिया।
ब्रिटिश प्रशासन उनकी गतिविधियों से पहले ही बहुत परेशां था पर अब और सतर्क हो गया। अब वे उनके पीछे लग गए। रानी बड़ी चतुराई से असम, नागालैंड और मणिपुर के एक-गाँव से दूसरे गाँव घूम-घूम कर प्रशासन को चकमा दे रही थीं। असम के गवर्नर ने असम राइफल्स की दो टुकड़ियाँ उनको और उनकी सेना को पकड़ने के लिए भेजा। इसके साथ-साथ प्रशासन ने रानी गाइदिनल्यू को पकड़ने में मदद करने के लिए इनाम भी घोषित कर दिया और अंततः 17 अक्टूबर 1932 को रानी और उनके कई समर्थकों को गिरफ्तार कर लिया गया।
रानी गाइदिनल्यू को इम्फाल ले जाया गया जहाँ उनपर 10 महीने तक मुकदमा चला और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। प्रशासन ने उनके ज्यादातर सहयोगियों को या तो मौत की सजा दी या जेल में डाल दिया। सन 1933 से लेकर सन 1947 तक रानी गाइदिनल्यू गौहाटी, शिल्लोंग, आइजोल और तुरा जेल में कैद रहीं। सन 1937 में जवाहरलाल नेहरु उनसे शिल्लोंग जेल में मिले और उनकी रिहाई का प्रयास करने का वचन दिया। उन्होंने ही गाइदिनल्यू को रानी की उपाधि दी। उन्होंने ब्रिटिश सांसद लेडी एस्टर को इस सम्बन्ध में पटर लिखा पर सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट फॉर इंडिया ने इस निवेदन को अस्वीकृत कर दिया।
देश की आजादी और रानी गाइदिनल्यू की रिहाई
जब सन 1946 में अंतरिम सरकार का गठन हुआ तब प्रधानमंत्री नेहरु के निर्देश पर रानी गाइदिनल्यू को तुरा जेल से रिहा कर दिया गया। अपनी रिहाई से पहले उन्होंने लगभग 14 साल विभिन्न जेलों में काटे थे। रिहाई के बाद वे अपने लोगों के उत्थान और विकास के लिए कार्य करती रहीं।
सन 1953 में जब प्रधानमंत्री नेहरु इम्फाल गए तब वे उनसे मिलीं और रिहाई के लिए कृतज्ञता प्रकट किया। बाद में वे ज़ेलिआन्ग्रोन्ग समुदाय के विकास और कल्याण से सम्बंधित बातचीत करने के लिए नेहरु से दिल्ली में भी मिलीं।
रानी गाइदिनल्यू नागा नेशनल कौंसिल (एन.एन.सी.) का विरोध करती थीं क्योंकि वे नागालैंड को भारत से अलग करने चाहते थे जबकि रानी ज़ेलिआन्ग्रोन्ग समुदाय के लिए भारत के अन्दर ही एक अलग क्षेत्र चाहती थीं। एन.एन.सी.उनका इस बात के लिए भी विरोध कर रहे थे क्योंकि वे परंपरागत नागा धर्म और रीति-रिवाजों को पुनर्जीवित करने का प्रयास भी कर रही थीं। नागा कबीलों की आपसी स्पर्धा के कारण रानी को अपने सहयोगियों के साथ 1960 में भूमिगत हो जाना पड़ा और भारत सरकार के साथ एक समझौते के बाद वे 6 साल बाद 1966 में बाहर आयीं। परवरी 1966 में वे दिल्ली में तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शाष्त्री से मिलीं और एक पृथक ज़ेलिआन्ग्रोन्ग प्रशासनिक इकाई की मां की। इसके बाद उनके समर्थकों ने आत्म-समर्पण कर दिया जिनमें से कुछ को नागालैंड आर्म्ड पुलिस में भर्ती कर लिया गया।
सन 1972 में उन्हें ताम्रपत्र स्वतंत्रता सेनानी पुरस्कार, 1982 में पद्म भूषण और 1983 में विवेकानंद सेवा पुरस्कार दिया गया।
निधन
सन 1991 में वे अपने जन्म-स्थान लोंग्काओ लौट गयीं जहाँ पर 78 साल की आयु में उनका निधन 17 फरवरी 1993 को हो गया।
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